Madhu varma

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लेखनी कविता -हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है - ग़ालिब

हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है / ग़ालिब


हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए सुख़न की आज़माइश है
चमन में ख़ुश-नवायान-ए-चमन की आज़माइश है

क़द-ओ-गेसू में क़ैस-ओ-कोहकन की आज़माइश है
जहां हम हैं वहां दार-ओ-रसन की आज़माइश है

करेंगे कोहकन के हौसले का इमतिहां आख़िर
अभी उस ख़स्ता के नेरवे-तन की आज़माइश है

नसीम-ए मिसर को क्या पीर-ए-कनआं की हवा-ख़वाही
उसे यूसुफ़ की बू-ए-पैरहन की आज़माइश है

वह आया बज़्म में देखो न कहयो फिर कि ग़ाफ़िल थे
शिकेब-ओ-सबर-ए-अहल-ए-अंजुमन की आज़माइश है

रहे दिल ही में तीर अच्छा जिगर के पार हो बेहतर
ग़रज़ शुस्त-ए-बुत-ए-नावक-फ़गन की आज़माइश है

नहीं कुछ सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार के फंदे में गीराई
वफ़ादारी में शैख़-ओ-बरहमन की आज़माइश है

पड़ा रह ऐ दिल-ए-वाबस्ता बेताबी से क्या हासिल
मगर फिर ताब-ए-ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की आज़माइश है

रग ओ पै में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिए क्या हो
अभी तो तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन की आज़माइश है

वो आवेंगे मिरे घर वादा कैसा देखना ग़ालिब
नए फ़ित्नों में अब चर्ख़-ए-कुहन की आज़माइश है

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